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परमेश्वर का स्व:अस्तित्व।

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  परमेश्वर के स्व:अस्तित्व का क्या अर्थ है? परमेश्वर के स्व:अस्तित्व का अर्थ है कि- परमेश्वर स्वयं में पर्याप्त है, उसको किसी की भी आवश्यकता नही हैं। परमेश्वर से ही सभी का स्रोत है, उससे ही सभी वस्तुओं की उत्पत्ति हुई है, वह ही सभी वस्तुओं तथा संसार को संभालता है। वह पहले से ही अस्तित्व में है। बाइबल पर आधारित तथ्य - परमेश्वर स्वयं में काफी है। वह ही आरंभ से है, वह पहले से स्व:अस्तित्व में है। हम यशायाह उसके 46:9 में देखते हैं कि- परमेश्वर आरंभ से है। लेखक कहता है कि केवल वह ही परमेश्वर है उसके तुल्य कोई नहीं है। हम प्रेरितों के काम 17:24-30  में देखते हैं कि- परमेश्वर जिसने जगत तथा सब वस्तुओं को बनाया, वही स्वर्ग और पृथ्वी का प्रभु है, वह हाथ के बनाए हुए मंदिरो में वास नहीं करता है। परमेश्वर ने ही सब वस्तुओं के होने तथा उनकी समय सीमा को निर्धारित किया है। परमेश्वर को रहने के लिए किसी भी जगह या स्थान की आवश्यकता नहीं है। परमेश्वर के सिद्धांत के लिए इसके महत्व को प्रदर्शित करना - परमेश्वर सब वस्तुओं का सृष

परमेश्वर के सरल होने का अर्थ।

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                                                       परमेश्वर के सरल होने का क्या अर्थ है?    सादगीय (सरलता)   परिभाषा- सादगीय का अर्थ है कि- परमेश्वर को भागों में नहीं बाँटा जा सकता है, और न ही वह अलग-अलग भागों से मिलकर बना हुआ है। परमेश्वर हमेशा से एक अस्तित्व तथा तीन भिन्न जनों में हैं। परमेश्वर स्वयं में परमेश्वर है, उसे परमेश्वर होने के लिए किसी की आवश्यकता नहीं है। बाइबल पर आधारित तथ्य - परमेश्वर स्वयं में अपनी विशेषता है। परमेश्वर हमेशा से एक निश्चित एकता में है। हम इस बात को देखते हैं कि परमेश्वर के लोग हमेशा से परमेश्वर के एक अस्तित्व को मानते चले आ रहे है, हम देखते कि- इस्राएलियों ने परमेश्वर एक अस्तित्व को स्वीकारा- इस बात को हम व्यवस्थाविवरण उसके 6:4 में देखते हैं कि- ‘यहोवा हमारा परमेश्वर है, यहोवा एक ही है’, उसके अलावा कोई परमेश्वर नहीं है। हम इस बात को भी देखते हैं कि उसका अस्तित्व ही उसकी विशेषता है, वह अपने स्वभाव में भिन्न नहीं है। हम यूहन्ना उसके 4:16 के आधार पर देखते हैं यीशु मसीह परमेश्वर के समान सर्वज्ञानी है, वह सब-कुछ को जानता है, वह परमेश्वर के अस्तित्व में

त्रियेक परमेश्वर के बीच में ईश्वरीय एकता।

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  त्रियेक परमेश्वर के बीच में ईश्वरीय एकता का क्या मतलब है?   ईश्वरीय एकता ईश्वरीय एकता का अर्थ है कि परमेश्वर हमेशा से एक अस्तित्व तथा तीन भिन्न जनों में है। तीनों जनों के कार्य अलग-अलग है लेकिन उनके कार्यों, विचारों तथा योजनाओं में एकता है। हम परमेश्वर पिता, परमेश्वर पुत्र तथा परमेश्वर पवित्र आत्मा को अलग नहीं कर सकते हैं। पिता, पुत्र, पवित्र आत्मा एक परमेश्वर हैं।  बाइबल पर आधारित तथ्य- परमेश्वर एक है, वह अद्भुत परमेश्वर है, एक अस्तित्व में हैं, इस बात को हम व्यवस्थाविवरण उसके 6:4 में देखते हैं कि मूसा इस्राएलियों को बताता है कि- यहोवा हमारा परमेश्वर है, यहोवा एक ही है। उत्पत्ति 1:26-27 में हम ईश्वरीय एकता को स्पष्ट रूप से देखते हैं। नये-नियम में हम 2 तीमुथियुस 2:5 में देखते हैं कि परमेश्वर एक है और परमेश्वर तथा मनुष्यों के बीच में मध्यस्थ भी एक है अर्थात् यीशु मसीह। हम कुलुस्सियों में 1:15-16 में देखते हैं कि यीशु मसीह के द्वारा सारे संसार की सृष्टी हुई है, वह ही सब पर प्रधान है। ये पद हमें ईश्वरीय एकता तथा यीशु मसीह के परमेश्वर के बारे में बताते हैं। पवित्र

ख्रीष्टीय लोगों का सृष्टी के बारे में विश्वास।

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ख्रीष्टीय लोग सृष्टि के बारे में क्या विश्वास करते हैं? कई वर्षों से लोग सोचते चले आ रहे हैं कि संसार को किसने बनाया है, लोग संसार के बारे में अलग-अलग विचारों को बताते हैं। कुछ लोग बिग बैंग थ्योरी (समुद्र में बड़ा धमाका हुआ और संसार की उत्पत्ति हो गई) पर विश्वास करते हैं तथा कुछ लोग अन्य काल्पनिक बातों पर विश्वास करते हैं, लेकिन बाइबल का परमेश्वर सृष्टि के बारें में ऐसे सत्य को बताता है जो कि वास्तविक तथा सत्य है…..बाइबल का परमेश्वर बहुत ही अद्भुत तथा आश्चर्यजनक है। जिसने कुछ नहीं से सब कुछ को बनाया है, परमेश्वर ने  केवल बोला और सृष्टि हो गई, न केवल इतना ही, लेकिन सृष्टि का सिद्धान्त इस बात को बताता है कि केवल परमेश्वर ही है जो अनन्त काल से है, वह स्वयं सृष्टिकर्ता है जिसने सब वस्तुओं को बनाया है। परमेश्वर को किसी ने नही बनाया है, लेकिन परमेश्वर के द्वारा ही सब वस्तुओं की सृष्टि हुई है- चाहे वे सदृश्य हो या अदृश्य (कुलु. 1:15-16)। कुछ भी परमेश्वर से अलग नही है लेकिन सब कुछ उसी पर निर्भर है तथा सब कुछ उसकी महिमा के लिए है।   केवल बाइबल के परमेश्वर ने, कुछ नहीं से सृष्टि को बनाया है। हम
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  संत अगस्टीन की पुस्तक अंगीकार से शिक्षाएँ तथा संक्षिप्त परिचय आप सब इस बात को जानते हैं कि हम सब के जीवन में पाप होता है, कई बार हम अंजाने में पाप करते हैं तथा कई बार जान-बूझकर करते हैं लेकिन हम सब के लिए बड़ी बात या कठिन बात अपने पाप को स्वीकार करने में होती है। यद्दपि परमेश्वर का वचन 1 यूहन्ना 1:8-9 हमें बताता है कि हम अपने पाप को अंगीकार करें और उसे छोड़ दे तो हमारे पापों की क्षमा होती है लेकिन फिर भी हमारे लिए यह करना कठिन होता है। आज हम उस व्यक्ति के बारें में बात करने जा रहे हैं जिसने बहुत सारे पाप जान-बूझ कर किए लेकिन उसने परमेश्वर पवित्र आत्मा की सहायता से अपने पाप को स्वीकार किया और उसे छोड़ दिया। उस व्यक्ति का नाम अगस्टीन है। अगस्टीन अपनी पुस्तक कन्फेशन में इस बात का अंगीकार करते हैं।    अगर हम बड़े चित्र में इस पुस्तक के बारे में बात करे तो हम इसमें देखते हैं कि अगस्टीन इस पुस्तक में अपने जीवन के बारे में बताने की कोशिश करते हैं कि कैसे अगस्टीन का जीवन परिवर्तन हुआ, कैसे वह मसीही बने। इस अंगीकार की पुस्तक में लेखक विशेषकर अपने आत्मिक यात्रा की बात करते हैं कि कैसे उन्होंने
  Summary writing and reflective writing Summary writing and reflective writing are two different types of writing that serve distinct purposes. Here are the differences between the two: Purpose: The purpose of summary writing is to provide a brief and concise account of the main points of a text, article, or speech. The purpose of reflective writing is to express your thoughts, feelings, and opinions on a particular topic or experience. Content: Summary writing focuses on presenting the key ideas of a piece of writing, while reflective writing focuses on exploring and analyzing personal experiences, feelings, and reactions. Tone: Summary writing is usually written in an objective and impersonal tone, while reflective writing is more personal and subjective. Structure: A summary is typically organized in a logical and systematic way, while reflective writing is often more free-form and may follow a less rigid structure. Audience: Summary writing is often directed at readers who nee
  William Wilberforce William Wilberforce was a British politician and devout Christian who played a significant role in the abolition of the slave trade in the British Empire. He was born in 1759 and had a religious conversion in his early twenties that shaped his beliefs and values. Wilberforce believed that it was his duty as a Christian to fight for justice and morality, and he used his position in society to do so. Wilberforce faced many challenges in his efforts to abolish the slave trade, including opposition from powerful interests and politicians who believed that trade was necessary for the economy and the survival of the British Empire. Despite this opposition, Wilberforce continued to speak out against the slave trade, to work behind the scenes to build support, and to educate the public about the evils of slavery. After many years of hard work, Wilberforce's efforts paid off, and the British Parliament passed the Abolition of the Slave Trade Act in 1807. Wilberforce co